जय श्री कृष्णा
मंगलवार, 27 फ़रवरी 2018
सोमवार, 26 फ़रवरी 2018
" सम्पूर्ण श्रीमद्भगवद्गीता " गतांक से आगे - (152)
अध्याय नोवाँ : राजविद्याराजगुह्ययोग (परम गुह्य ज्ञान)
भाई-बहनों, सातवें अध्याय के आरम्भ में भगवान् ने विज्ञानसहित ज्ञान का वर्णन करने की प्रतिज्ञा की थी, उसके अनुसार उस विषय का वर्णन करते हुये आखिर में ब्रह्म, अध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ सहित भगवान् को जानने की और अंतकाल में भगवान् के चिन्तन की बात कही, फिर आठवें अध्याय में विषय को समझने के लिये सात प्रश्न किये, उनमें से छः प्रश्नों के उत्तर तो भगवान् श्रीकृष्ण ने संक्षिप्त में तीसरे और चौथे श्लोक में दिये।
लेकिन सातवें प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने जिस उपदेश का आरम्भ किया उसमें ही आठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ, इस प्रकार सातवें अध्याय में शुरू किये गये विज्ञानसहित ज्ञान का सांगोपांग वर्णन नहीं हो पाने से उस विषय को बराबर समझाने के लिये भगवान् इस नौवें अध्याय का आरम्भ करते हैं, सातवें अध्याय में वर्णन किये गये उपदेश से इसका प्रगाढ़ सम्बन्ध बताने के लिये भगवान् पहले श्लोक में फिर से वही विज्ञानसहित ज्ञान का वर्णन करने की प्रतीज्ञा करते हैं।
श्रीभगवानुवाच
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ।।1।।
श्रीभगवान् ने कहा- हे अर्जुन! चूँकि तुम मुझसे कभी ईष्र्या नहीं करते, इसलिये मैं तुम्हें यह परम गुह्यज्ञान तथा अनुभूति बतलाऊँगा, जिसे जानकर तुम संसार के सारे क्लेशों से मुक्त हो जाओगे।
सज्जनों, ज्यो-ज्यो भक्त भगवान् के विषयों में अधिकाधिक सुनता है, त्यो-त्यो वह आत्मप्रकाशित होता जाता है, यह श्रवण विधि श्रीमद्भागवतमें इस प्रकार अनुमोदित है- भगवान् के संदेश शक्तियों से पूरित होते हैं जिनकी अनुभूति तभी होती है जब भक्तजन भगवान् सम्बन्धी कथाओं की परस्पर चर्चा करते हैं, इसे मनोधर्मियों या विद्यालयीन विद्वानों के सानिध्य से नहीं प्राप्त किया जा सकता, क्योंकि यह अनुभूति ज्ञान (विज्ञान) है।
भक्तगण परमेश्वर की सेवा में निरन्तर लगे रहते हैं, भगवान् उस जीव विशेष की मानसिकता तथा निष्ठा से अवगत रहते हैं, जो भगवद्भक्तिभावित होता है और उसे ही वे भक्तों के सान्निध्य में कृष्णविद्या को समझने की बुद्धि प्रदान करते हैं, श्रीकृष्ण की चर्चा अत्यन्त शक्तिशाली है और यदि सौभाग्यवश किसी को ऐसी संगति प्राप्त हो जाये और वह इस ज्ञान को आत्मसात् करे तो वह आत्म-साक्षात्कार की दिशा में अवश्य प्रगति करेगा।
श्रीकृष्ण अपने शिष्य अर्जुन को अपनी अलौकिक सेवा में उच्च से उच्चतर स्तर तक उत्साहित करने के उद्देश्य से इस नवें अध्याय में उसे परम गुह्य बातें बताते है जिन्हें इसके पूर्व भगवान् ने अन्य किसी से प्रकट नहीं किया था, भगवद्गीता का प्रथम अध्याय शेष ग्रंथ की भूमिका जैसा है, द्वितीय तथा तृतीय अध्याय में जिस आध्यात्मिक ज्ञान का वर्णन हुआ है वह गुह्य कहा गया है, सातवें तथा आठवें अध्याय में जिन विषयों की विवेचना हुई है वे भक्ति से सम्बन्धित है और भगवद्भक्ति पर प्रकाश डालने के कारण गुह्यतर कहे गये है।
किन्तु नवें अध्याय में तो अनन्य शुद्ध भक्ति का ही वर्णन हुआ है इसलिये यह परमगुह्य कहा गया है, जिसे श्रीकृष्ण का यह परमगुह्य ज्ञान प्राप्त है वह दिव्य पुरूष है, अतः इस संसार में रहते हुये भी उसे भौतिक क्लेश नहीं सताते, शास्त्रों में कहा गया है कि जिसमें भगवान् की प्रेमाभक्ति करने की उत्कृष्ट इच्छा होती है, वह भले ही इस जगत् में बद्ध अवस्था में रहता हो, किन्तु उसे मुक्त मानना चाहिये, इसी प्रकार भगवद्गीता के दसवें अध्याय में हम देखेंगे कि जो भी इस प्रकार लगा रहता है, वह मुक्त पुरूष है।
सज्जनों! इस अध्याय के प्रथम श्लोक का विशिष्ट महत्व है, "इदं ज्ञानम्" (यह ज्ञान) शब्द शुद्धभक्ति के द्योतक है जो नौ प्रकार की होती है- श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पाद-सेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य तथा आत्म-समर्पण, भक्ति के इन नौ तत्त्वों का अभ्यास करने से मनुष्य आध्यात्मिक चेतना अथवा भगवद्भक्ति तक उठ पाता है, इस प्रकार जब मनुष्य का ह्रदय भौतिक कल्मष से शुद्ध हो जाता है तो वह कृष्णविद्या को समझ सकता है, केवल यह जान लेना ही पर्याप्त नहीं होता कि जीव भौतिक नहीं है।
यह तो आत्मानुभूति का शुभारम्भ हो सकता है, किन्तु उस मनुष्य को शरीर के कार्यों तथा उस भक्त के आध्यात्मिक कार्यों के अन्तर को समझना होगा, जो यह जानना है कि वह शरीर नहीं है, सातवें अध्याय में भगवान् की ऐश्वर्यमयी शक्ति, उनकी विभिन्न शक्तियों- परा तथा अपरा, तथा इस भौतिक जगत् का वर्णन किया जा चुका है, अब नौवें अध्याय में भगवान् की महिमा का वर्णन किया जायेगा।
इस पहले श्लोक का अनसूयवे शब्द भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है, कोई भी ऐसा व्यक्ति जो भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति ईर्ष्यालु है, न तो भगवद्गीता की व्याख्या कर सकता है, न पूर्णज्ञान प्रदान कर सकता है, जो व्यक्ति श्रीकृष्ण को जाने बिना उनके चरित्र की आलोचना करता है, वह मूर्ख है, अतः जो व्यक्ति यह समझते है कि श्रीकृष्ण भगवान् है और शुद्ध तथा दिव्य पुरूष है उनके लिये यह अध्याय अत्यन्त लाभप्रद होगा।
शेष जारी • • • • • • • • • • • • •
जय श्री कृष्ण!
ओऊम् नमो भगवते वासुदेवाय्
[ ना चादर बढ़ी कीजिए -
ना ख़्वाहिशें दफ़न कीजिए,
चार दिन की है ज़िंदगी -
बस चैन से बसर कीजिए।
ना परेशां किसी को कीजिए -
ना हैरान किसी को कीजिए,
चाहे दे कोई तुम्हें लाख गालियाँ -
बस मुस्करा के उन्हें लौटा दीजिए।
ना रूठा किसी से कीजिए -
ना झूठा वादा किसी से कीजिए,
ना फ़ुरसत हो आज मिलने की-
कल ख़ुद से मुलाक़ात कीजिए
" जीवन एक "प्रतिध्वनि" है। यहाँ सब कुछ वापस लौटकर आ जाता है,
अच्छा, बुरा, झूठ, सच...।
अतः दुनिया को आप सबसे अच्छा देने का प्रयास करें और निश्चित ही सबसे अच्छा आपके पास वापस आएगा"
: It is the truth of life.
वाह री जिंदगी
""”"""""""""""""""'""""
* जिंदगी की आधी उम्र तक पैसा कमाया*
*पैसा कमाने में इस शरीर को खराब किया *
* बाकी आधी उम्र उसी पैसे को *
* शरीर ठीक करने में लगाया *
* ओर अंत मे क्या हुआ *
* ना शरीर बचा ना ही पैसा *
""""‛"""''""""""""'''''''''''''''''''''''''''''''''""""""""""
वाह री जिंदगी
""”"""""""""""""""'""""
वाह री जिंदगी
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* दौलत की भूख ऐसी लगी की कमाने निकल गए *
* ओर जब दौलत मिली तो हाथ से रिश्ते निकल गए *
* बच्चो के साथ रहने की फुरसत ना मिल सकी *
* ओर जब फुरसत मिली तो बच्चे कमाने निकल गए *
वाह री जिंदगी
वाह री जिन्दगी ""”"""""""""""""""'""""
""”"""""""""""""""'""""
* शमशान के बाहर लिखा था *
* मंजिल तो तेरी ये ही थी *
* बस जिंदगी बित गई आते आते *
* क्या मिला तुझे इस दुनिया से *
* अपनो ने ही जला दिया तुझे जाते जाते *
वाह री जिंदगी
""”"""""""""""""""'""""
: है कान्हा.....
अब मुझे डूबने का कोई खौफ नही
नाव भी तेरी, दरिया भी तेरा, लहरें भी तेरी और हम भी तेरे..!!
🕉जय श्री कृष्णा🔯
🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔
सत्यानुसारिणी लक्ष्मीःकीर्तिस्त्यागानुसारिणी।
अभ्यास सारिणी विद्या बुद्धिः कर्मानुसारिणी।।
🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔
भावार्थ - जहाँ सत्य होता है, वहीं लक्ष्मी का निवास होता है, कीर्ति सदा उसी की रहती है, जो त्याग करता है, विद्या सदा अभ्यास करने वाले के पास ही रहती है तथा जिसके जैसे कर्म होते हैं, उसकी बुद्धि भी तदनुसार ही कार्य करती है।
🐚🐚🐚🐚🐚🐚🐚🐚🐚🐚
आपका आज का दिन परम प्रसन्नता से परिपूर्ण रहे, इस मंगलकामना के साथ -
- जय श्रीहरि परम-
🐚🐚🐚🐚🐚🐚🐚🐚🐚🐚
[🙏जय सदगुरु देव भगवान
देह धरे का दंड है ,सब काहु को होय ।
ज्ञानी भुक्ते ज्ञान से,अज्ञानी भुक्ते रोय।
🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸
एक संसारिक मनुष्य का पुरा जीवन हर क्रिया कि प्रतिक्रिया में ही बीत जाता है।जबकी
एक योगी ज्ञान के अधार पर परिस्थिति को समझ लेता है।एवंम अपनी कार्यशेली द्वारा सफलता पुर्वक जीवन में उच्चे लक्ष्य को प्राप्त करता है।साथ ही बह अकर्म कि दिशा में बढ़ चलता है।
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩
*कामस्यान्तं हि क्षुत्तृड्भ्यां क्रोधस्यैतत्फलोदयात् ।*
*जनो याति न लोभस्य*
*जित्वाभुक्त्वा दिशो भुवः।।*
🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩
*भावार्थ - लोभ मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। क्रोध अपना काम पूरा करके शान्त हो जाता है, परन्तु यदि मनुष्य पृथ्वी की समस्त दिशाओं को भी जीत ले और भोग ले, तब भी लोभ का अन्त नहीं होता है ।*
🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩
*Greed is the greatest enemy of man. Anger becomes calm by fulfilling his work, but if a person conquers all directions of the earth and enjoys it, then greed does not end.*
🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩
*आपका आज का दिन मंगलमय हो।*
*🙏🌹🚩सुप्रभातम्🚩🌹🙏*
*जिंदगी में खत्म होने जैसा*
*कुछ नहीं होता*
*हमेशा,एक नई शुरुआत*
*आपका इंतजार करती है*
_*💫Good Morning ✍💔👈🤷🏻♂*_
*अच्छा लगता है मुझे उन लोगों से बात करना*
*जो मेरे कुछ भी नहीं लगते पर फिर भी मेरे बहुत कुछ है*....
🙏🇮🇳वंदेमातरम🇮🇳🙏
👉सुंदर सुबह का 👈🏽🌺🌿
मीठा मीठा
🌿🌺👉🏼नमस्कार..👈🏽🌺🌿
ना घुमने के लिये कार चाहिए ,
ना गले के लिए हार चाहिए ,
" भगवद् गीता मे श्री कृष्णा ने बहुत बड़ी बात कही है " !!!
जीवन के उद्धार के लिए केवल मित्र , प्रेम और परिवार चाहिए..... 😊 🌿🌺Good morning 🌺🌿
🙏🏼😊 शुभ सुप्रभात 😊
अध्याय नोवाँ : राजविद्याराजगुह्ययोग (परम गुह्य ज्ञान)
भाई-बहनों, सातवें अध्याय के आरम्भ में भगवान् ने विज्ञानसहित ज्ञान का वर्णन करने की प्रतिज्ञा की थी, उसके अनुसार उस विषय का वर्णन करते हुये आखिर में ब्रह्म, अध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञ सहित भगवान् को जानने की और अंतकाल में भगवान् के चिन्तन की बात कही, फिर आठवें अध्याय में विषय को समझने के लिये सात प्रश्न किये, उनमें से छः प्रश्नों के उत्तर तो भगवान् श्रीकृष्ण ने संक्षिप्त में तीसरे और चौथे श्लोक में दिये।
लेकिन सातवें प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने जिस उपदेश का आरम्भ किया उसमें ही आठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ, इस प्रकार सातवें अध्याय में शुरू किये गये विज्ञानसहित ज्ञान का सांगोपांग वर्णन नहीं हो पाने से उस विषय को बराबर समझाने के लिये भगवान् इस नौवें अध्याय का आरम्भ करते हैं, सातवें अध्याय में वर्णन किये गये उपदेश से इसका प्रगाढ़ सम्बन्ध बताने के लिये भगवान् पहले श्लोक में फिर से वही विज्ञानसहित ज्ञान का वर्णन करने की प्रतीज्ञा करते हैं।
श्रीभगवानुवाच
इदं तु ते गुह्यतमं प्रवक्ष्याम्यनसूयवे
ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात् ।।1।।
श्रीभगवान् ने कहा- हे अर्जुन! चूँकि तुम मुझसे कभी ईष्र्या नहीं करते, इसलिये मैं तुम्हें यह परम गुह्यज्ञान तथा अनुभूति बतलाऊँगा, जिसे जानकर तुम संसार के सारे क्लेशों से मुक्त हो जाओगे।
सज्जनों, ज्यो-ज्यो भक्त भगवान् के विषयों में अधिकाधिक सुनता है, त्यो-त्यो वह आत्मप्रकाशित होता जाता है, यह श्रवण विधि श्रीमद्भागवतमें इस प्रकार अनुमोदित है- भगवान् के संदेश शक्तियों से पूरित होते हैं जिनकी अनुभूति तभी होती है जब भक्तजन भगवान् सम्बन्धी कथाओं की परस्पर चर्चा करते हैं, इसे मनोधर्मियों या विद्यालयीन विद्वानों के सानिध्य से नहीं प्राप्त किया जा सकता, क्योंकि यह अनुभूति ज्ञान (विज्ञान) है।
भक्तगण परमेश्वर की सेवा में निरन्तर लगे रहते हैं, भगवान् उस जीव विशेष की मानसिकता तथा निष्ठा से अवगत रहते हैं, जो भगवद्भक्तिभावित होता है और उसे ही वे भक्तों के सान्निध्य में कृष्णविद्या को समझने की बुद्धि प्रदान करते हैं, श्रीकृष्ण की चर्चा अत्यन्त शक्तिशाली है और यदि सौभाग्यवश किसी को ऐसी संगति प्राप्त हो जाये और वह इस ज्ञान को आत्मसात् करे तो वह आत्म-साक्षात्कार की दिशा में अवश्य प्रगति करेगा।
श्रीकृष्ण अपने शिष्य अर्जुन को अपनी अलौकिक सेवा में उच्च से उच्चतर स्तर तक उत्साहित करने के उद्देश्य से इस नवें अध्याय में उसे परम गुह्य बातें बताते है जिन्हें इसके पूर्व भगवान् ने अन्य किसी से प्रकट नहीं किया था, भगवद्गीता का प्रथम अध्याय शेष ग्रंथ की भूमिका जैसा है, द्वितीय तथा तृतीय अध्याय में जिस आध्यात्मिक ज्ञान का वर्णन हुआ है वह गुह्य कहा गया है, सातवें तथा आठवें अध्याय में जिन विषयों की विवेचना हुई है वे भक्ति से सम्बन्धित है और भगवद्भक्ति पर प्रकाश डालने के कारण गुह्यतर कहे गये है।
किन्तु नवें अध्याय में तो अनन्य शुद्ध भक्ति का ही वर्णन हुआ है इसलिये यह परमगुह्य कहा गया है, जिसे श्रीकृष्ण का यह परमगुह्य ज्ञान प्राप्त है वह दिव्य पुरूष है, अतः इस संसार में रहते हुये भी उसे भौतिक क्लेश नहीं सताते, शास्त्रों में कहा गया है कि जिसमें भगवान् की प्रेमाभक्ति करने की उत्कृष्ट इच्छा होती है, वह भले ही इस जगत् में बद्ध अवस्था में रहता हो, किन्तु उसे मुक्त मानना चाहिये, इसी प्रकार भगवद्गीता के दसवें अध्याय में हम देखेंगे कि जो भी इस प्रकार लगा रहता है, वह मुक्त पुरूष है।
सज्जनों! इस अध्याय के प्रथम श्लोक का विशिष्ट महत्व है, "इदं ज्ञानम्" (यह ज्ञान) शब्द शुद्धभक्ति के द्योतक है जो नौ प्रकार की होती है- श्रवण, कीर्तन, स्मरण, पाद-सेवन, अर्चन, वन्दन, दास्य, सख्य तथा आत्म-समर्पण, भक्ति के इन नौ तत्त्वों का अभ्यास करने से मनुष्य आध्यात्मिक चेतना अथवा भगवद्भक्ति तक उठ पाता है, इस प्रकार जब मनुष्य का ह्रदय भौतिक कल्मष से शुद्ध हो जाता है तो वह कृष्णविद्या को समझ सकता है, केवल यह जान लेना ही पर्याप्त नहीं होता कि जीव भौतिक नहीं है।
यह तो आत्मानुभूति का शुभारम्भ हो सकता है, किन्तु उस मनुष्य को शरीर के कार्यों तथा उस भक्त के आध्यात्मिक कार्यों के अन्तर को समझना होगा, जो यह जानना है कि वह शरीर नहीं है, सातवें अध्याय में भगवान् की ऐश्वर्यमयी शक्ति, उनकी विभिन्न शक्तियों- परा तथा अपरा, तथा इस भौतिक जगत् का वर्णन किया जा चुका है, अब नौवें अध्याय में भगवान् की महिमा का वर्णन किया जायेगा।
इस पहले श्लोक का अनसूयवे शब्द भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है, कोई भी ऐसा व्यक्ति जो भगवान् श्रीकृष्ण के प्रति ईर्ष्यालु है, न तो भगवद्गीता की व्याख्या कर सकता है, न पूर्णज्ञान प्रदान कर सकता है, जो व्यक्ति श्रीकृष्ण को जाने बिना उनके चरित्र की आलोचना करता है, वह मूर्ख है, अतः जो व्यक्ति यह समझते है कि श्रीकृष्ण भगवान् है और शुद्ध तथा दिव्य पुरूष है उनके लिये यह अध्याय अत्यन्त लाभप्रद होगा।
शेष जारी • • • • • • • • • • • • •
जय श्री कृष्ण!
ओऊम् नमो भगवते वासुदेवाय्
[ ना चादर बढ़ी कीजिए -
ना ख़्वाहिशें दफ़न कीजिए,
चार दिन की है ज़िंदगी -
बस चैन से बसर कीजिए।
ना परेशां किसी को कीजिए -
ना हैरान किसी को कीजिए,
चाहे दे कोई तुम्हें लाख गालियाँ -
बस मुस्करा के उन्हें लौटा दीजिए।
ना रूठा किसी से कीजिए -
ना झूठा वादा किसी से कीजिए,
ना फ़ुरसत हो आज मिलने की-
कल ख़ुद से मुलाक़ात कीजिए
" जीवन एक "प्रतिध्वनि" है। यहाँ सब कुछ वापस लौटकर आ जाता है,
अच्छा, बुरा, झूठ, सच...।
अतः दुनिया को आप सबसे अच्छा देने का प्रयास करें और निश्चित ही सबसे अच्छा आपके पास वापस आएगा"
: It is the truth of life.
वाह री जिंदगी
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* जिंदगी की आधी उम्र तक पैसा कमाया*
*पैसा कमाने में इस शरीर को खराब किया *
* बाकी आधी उम्र उसी पैसे को *
* शरीर ठीक करने में लगाया *
* ओर अंत मे क्या हुआ *
* ना शरीर बचा ना ही पैसा *
""""‛"""''""""""""'''''''''''''''''''''''''''''''''""""""""""
वाह री जिंदगी
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वाह री जिंदगी
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* दौलत की भूख ऐसी लगी की कमाने निकल गए *
* ओर जब दौलत मिली तो हाथ से रिश्ते निकल गए *
* बच्चो के साथ रहने की फुरसत ना मिल सकी *
* ओर जब फुरसत मिली तो बच्चे कमाने निकल गए *
वाह री जिंदगी
वाह री जिन्दगी ""”"""""""""""""""'""""
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* शमशान के बाहर लिखा था *
* मंजिल तो तेरी ये ही थी *
* बस जिंदगी बित गई आते आते *
* क्या मिला तुझे इस दुनिया से *
* अपनो ने ही जला दिया तुझे जाते जाते *
वाह री जिंदगी
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: है कान्हा.....
अब मुझे डूबने का कोई खौफ नही
नाव भी तेरी, दरिया भी तेरा, लहरें भी तेरी और हम भी तेरे..!!
🕉जय श्री कृष्णा🔯
🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔
सत्यानुसारिणी लक्ष्मीःकीर्तिस्त्यागानुसारिणी।
अभ्यास सारिणी विद्या बुद्धिः कर्मानुसारिणी।।
🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔🔔
भावार्थ - जहाँ सत्य होता है, वहीं लक्ष्मी का निवास होता है, कीर्ति सदा उसी की रहती है, जो त्याग करता है, विद्या सदा अभ्यास करने वाले के पास ही रहती है तथा जिसके जैसे कर्म होते हैं, उसकी बुद्धि भी तदनुसार ही कार्य करती है।
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आपका आज का दिन परम प्रसन्नता से परिपूर्ण रहे, इस मंगलकामना के साथ -
- जय श्रीहरि परम-
🐚🐚🐚🐚🐚🐚🐚🐚🐚🐚
[🙏जय सदगुरु देव भगवान
देह धरे का दंड है ,सब काहु को होय ।
ज्ञानी भुक्ते ज्ञान से,अज्ञानी भुक्ते रोय।
🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸🌸
एक संसारिक मनुष्य का पुरा जीवन हर क्रिया कि प्रतिक्रिया में ही बीत जाता है।जबकी
एक योगी ज्ञान के अधार पर परिस्थिति को समझ लेता है।एवंम अपनी कार्यशेली द्वारा सफलता पुर्वक जीवन में उच्चे लक्ष्य को प्राप्त करता है।साथ ही बह अकर्म कि दिशा में बढ़ चलता है।
🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏🙏
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*कामस्यान्तं हि क्षुत्तृड्भ्यां क्रोधस्यैतत्फलोदयात् ।*
*जनो याति न लोभस्य*
*जित्वाभुक्त्वा दिशो भुवः।।*
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*भावार्थ - लोभ मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है। क्रोध अपना काम पूरा करके शान्त हो जाता है, परन्तु यदि मनुष्य पृथ्वी की समस्त दिशाओं को भी जीत ले और भोग ले, तब भी लोभ का अन्त नहीं होता है ।*
🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩🚩
*Greed is the greatest enemy of man. Anger becomes calm by fulfilling his work, but if a person conquers all directions of the earth and enjoys it, then greed does not end.*
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*आपका आज का दिन मंगलमय हो।*
*🙏🌹🚩सुप्रभातम्🚩🌹🙏*
*जिंदगी में खत्म होने जैसा*
*कुछ नहीं होता*
*हमेशा,एक नई शुरुआत*
*आपका इंतजार करती है*
_*💫Good Morning ✍💔👈🤷🏻♂*_
*अच्छा लगता है मुझे उन लोगों से बात करना*
*जो मेरे कुछ भी नहीं लगते पर फिर भी मेरे बहुत कुछ है*....
🙏🇮🇳वंदेमातरम🇮🇳🙏
👉सुंदर सुबह का 👈🏽🌺🌿
मीठा मीठा
🌿🌺👉🏼नमस्कार..👈🏽🌺🌿
ना घुमने के लिये कार चाहिए ,
ना गले के लिए हार चाहिए ,
" भगवद् गीता मे श्री कृष्णा ने बहुत बड़ी बात कही है " !!!
जीवन के उद्धार के लिए केवल मित्र , प्रेम और परिवार चाहिए..... 😊 🌿🌺Good morning 🌺🌿
🙏🏼😊 शुभ सुप्रभात 😊
रविवार, 10 दिसंबर 2017
*एक बादशाह अपने कुत्ते के साथ ना
*एक बादशाह अपने कुत्ते के साथ नाव में यात्रा कर रहा था । उस नाव में अन्य यात्रियों के साथ एक दार्शनिक भी था।*
*कुत्ते ने कभी नौका में सफर नहीं किया था, इसलिए वह अपने को सहज महसूस नहीं कर पा रहा था।*
*वह उछल-कूद कर रहा था और किसी को चैन से नहीं बैठने दे रहा था।*
*मल्लाह उसकी उछल-कूद से परेशान था कि ऐसी स्थिति में यात्रियों की हड़बड़ाहट से नाव डूब जाएगी।*
*वह भी डूबेगा और दूसरों को भी ले डूबेगा।*
*परन्तु कुत्ता अपने स्वभाव के कारण उछल-कूद में लगा था।*
*ऐसी स्थिति देखकर बादशाह भी गुस्से में था।*
*पर, कुत्ते को सुधारने का कोई उपाय उन्हें समझ में नहीं आ रहा था।*
*नाव में बैठे दार्शनिक से रहा नहीं गया।*
*वह बादशाह के पास गया और बोला - "सरकार ! अगर आप इजाजत दें तो मैं इस कुत्ते को भीगी बिल्ली बना सकता हूँ ।"*
*बादशाह ने तत्काल अनुमति दे दी।*
*दार्शनिक ने दो यात्रियों का सहारा लिया और उस कुत्ते को नाव से उठाकर नदी में फेंक दिया।*
*कुत्ता तैरता हुआ नाव के खूंटे को पकड़ने लगा।*
*उसको अब अपनी जान के लाले पड़ रहे थे।*
*कुछ देर बाद दार्शनिक ने उसे खींचकर नाव में चढ़ा लिया।*
*वह कुत्ता चुपके से जाकर एक कोने में बैठ गया।*
*नाव के यात्रियों के साथ बादशाह को भी उस कुत्ते के बदले व्यवहार पर बड़ा आश्चर्य हुआ।*
*बादशाह ने दार्शनिक से पूछा - "यह पहले तो उछल-कूद और हरकतें कर रहा था, अब देखो कैसे यह पालतू बकरी की तरह बैठा है ?"*
.
*दार्शनिक बोला -*
*"खुद तकलीफ का स्वाद चखे बिना किसी को दूसरे की विपत्ति का अहसास नहीं होता है।*
*इस कुत्ते को जब मैंने पानी में फेंक दिया तो इसे पानी की ताकत और नाव की उपयोगिता समझ में आ गयी ।"
*कुत्ते ने कभी नौका में सफर नहीं किया था, इसलिए वह अपने को सहज महसूस नहीं कर पा रहा था।*
*वह उछल-कूद कर रहा था और किसी को चैन से नहीं बैठने दे रहा था।*
*मल्लाह उसकी उछल-कूद से परेशान था कि ऐसी स्थिति में यात्रियों की हड़बड़ाहट से नाव डूब जाएगी।*
*वह भी डूबेगा और दूसरों को भी ले डूबेगा।*
*परन्तु कुत्ता अपने स्वभाव के कारण उछल-कूद में लगा था।*
*ऐसी स्थिति देखकर बादशाह भी गुस्से में था।*
*पर, कुत्ते को सुधारने का कोई उपाय उन्हें समझ में नहीं आ रहा था।*
*नाव में बैठे दार्शनिक से रहा नहीं गया।*
*वह बादशाह के पास गया और बोला - "सरकार ! अगर आप इजाजत दें तो मैं इस कुत्ते को भीगी बिल्ली बना सकता हूँ ।"*
*बादशाह ने तत्काल अनुमति दे दी।*
*दार्शनिक ने दो यात्रियों का सहारा लिया और उस कुत्ते को नाव से उठाकर नदी में फेंक दिया।*
*कुत्ता तैरता हुआ नाव के खूंटे को पकड़ने लगा।*
*उसको अब अपनी जान के लाले पड़ रहे थे।*
*कुछ देर बाद दार्शनिक ने उसे खींचकर नाव में चढ़ा लिया।*
*वह कुत्ता चुपके से जाकर एक कोने में बैठ गया।*
*नाव के यात्रियों के साथ बादशाह को भी उस कुत्ते के बदले व्यवहार पर बड़ा आश्चर्य हुआ।*
*बादशाह ने दार्शनिक से पूछा - "यह पहले तो उछल-कूद और हरकतें कर रहा था, अब देखो कैसे यह पालतू बकरी की तरह बैठा है ?"*
.
*दार्शनिक बोला -*
*"खुद तकलीफ का स्वाद चखे बिना किसी को दूसरे की विपत्ति का अहसास नहीं होता है।*
*इस कुत्ते को जब मैंने पानी में फेंक दिया तो इसे पानी की ताकत और नाव की उपयोगिता समझ में आ गयी ।"
शनिवार, 9 दिसंबर 2017
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च । अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥
. मैं ही 'उत्पत्ति', मैं ही 'स्थिति' और मैं ही 'प्रलय' हूँ !!!
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश एवं मन, बुद्धि और अहंकार; इस प्रकार यह उपर्युक्त प्रकृति अर्थात मुझ ईश्वर की मायाशक्ति आठ प्रकार से भिन्न है - विभाग को प्राप्त हुई है ।
(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय - ७, श्लोक - ४)
भगवान् श्री कृष्ण आगे कहते हैं,
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् ।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ॥
यह (उपर्युक्त) मेरी अपरा प्रकृति अर्थात परा नहीं, किन्तु निकृष्ट है, अशुद्ध है और अनर्थ करने वाली है एवं संसार बन्धनरूपा है । और हे महाबाहो! इस उपर्युक्त प्रकृति में दूसरी जीवरूपा अर्थात प्राणधारण की निमित्त बनी हुई जो क्षेत्रज्ञरूपा प्रकृति है, अंतर में प्रवृष्ट हुई जिस प्रकृति के द्वारा यह समस्त जगत धारण किया जाता है उसको तू मेरी परा प्रकृति जान अर्थात उसे मेरी आत्मरूपा उत्तम और शुद्ध प्रकृति जान ।
(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय - ७, श्लोक - ५)
भगवान् ने अपरा और परा रूप अपनी ही दो प्रकृति बताया है । यहाँ प्रकृति शब्द महत्वपूर्ण है । जिस प्रकार अग्नि की दो प्रकृति है एक प्रकाश और दूसरा ऊष्मा । प्रकाश और ऊष्मा रूप प्रकृति तभी है जब अग्नि का अस्तित्व है । बिना प्रकाश के अग्नि या बिना ऊष्मा के अग्नि या दोनों के बिना अग्नि का अस्तित्व ही नहीं है । अग्नि, ऊष्मा और प्रकाश का कारण नहीं है, क्योंकि दो या दो से अधिक कारणों से ही कार्य की उत्पत्ति होती है । बल्कि, ऊष्मा और प्रकाश अग्नि से प्रकट हुए हैं - उत्पन्न नहीं हुए हैं क्योंकि प्राकट्य स्वतः होता है जबकि उत्पत्ति दो या दो से अधिक पदार्थों के मेल से होता है। शीतल अग्नि कभी नहीं देखी गई और न प्रकाशहीन अग्नि ही देखी गई है । अग्नि है तो प्रकाश और ऊष्मा निश्चित है । ठीक उसी प्रकार, परमात्मा की दो प्रकृति है एक अपरा और दूसरी परा । परमात्मा है तो परा और अपरा प्रकृति निश्चित है । जिस प्रकार अग्नि से स्वतः ही प्रकाश और ऊष्मा प्रकट होता है उसी प्रकार परमात्मा से स्वतः ही परा और अपरा प्रकृति का प्राकट्य होता है ।
भगवान् आगे कहते हैं,
एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय ।
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ॥
यह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ रूप दोनों 'परा' और 'अपरा' प्रकृति ही जिनकी योनि - कारण हैं ऐसे ये समस्त भूत प्राणी प्रकृति रूप कारण से ही उत्पन्न हुए हैं, ऐसा जान क्योंकि मेरी दोनों प्रकृतियाँ ही समस्त भूतों की योनि यानी कारण हैं, इसलिए समस्त जगत का प्रभव - उत्पत्ति और प्रलय - विनाश मैं ही हूँ । अर्थात इन दोनों प्रकृतियों द्वारा मैं सर्वज्ञ ईश्वर ही समस्त जगत् का कारण हूँ ।
(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय - ७, श्लोक - ६)
प्रकट हुए परा प्रकृति और अपरा प्रकृति के मेल से (के कारण) समस्त भूत प्राणी उत्पन्न हुए हैं। जिस प्रकार सूर्य की किरण के एक ही बिंदु पर प्रकाश और ऊष्मा एक साथ क्रियाशील होते हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि ऊष्मा का कारण प्रकाश है। ठीक उसी प्रकार, परा और अपरा प्रत्येक बिंदु पर एक साथ क्रियाशील हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि परा प्रकृति का आश्रय अपरा प्रकृति है इसीलिए मृत्यु यानी शरीर (अपरा) के नाश के साथ ही "मैं" जिसकी आवाज है उस आत्मा (परा) के नाश की प्रतीती होती है।
चूँकि दोनों प्रकृति मूलतः भगवान् से ही प्रकट हैं अतः आत्मरूपा और मायारूपा दोनों प्रकृतियों द्वारा सर्वज्ञ परमात्मा ही समस्त जगत के उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय हैं। अतः समस्त जगत् का मूल कारण सर्वज्ञ परमात्मा हैं !!
जय श्री कृष्ण !!
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश एवं मन, बुद्धि और अहंकार; इस प्रकार यह उपर्युक्त प्रकृति अर्थात मुझ ईश्वर की मायाशक्ति आठ प्रकार से भिन्न है - विभाग को प्राप्त हुई है ।
(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय - ७, श्लोक - ४)
भगवान् श्री कृष्ण आगे कहते हैं,
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् ।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ॥
यह (उपर्युक्त) मेरी अपरा प्रकृति अर्थात परा नहीं, किन्तु निकृष्ट है, अशुद्ध है और अनर्थ करने वाली है एवं संसार बन्धनरूपा है । और हे महाबाहो! इस उपर्युक्त प्रकृति में दूसरी जीवरूपा अर्थात प्राणधारण की निमित्त बनी हुई जो क्षेत्रज्ञरूपा प्रकृति है, अंतर में प्रवृष्ट हुई जिस प्रकृति के द्वारा यह समस्त जगत धारण किया जाता है उसको तू मेरी परा प्रकृति जान अर्थात उसे मेरी आत्मरूपा उत्तम और शुद्ध प्रकृति जान ।
(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय - ७, श्लोक - ५)
भगवान् ने अपरा और परा रूप अपनी ही दो प्रकृति बताया है । यहाँ प्रकृति शब्द महत्वपूर्ण है । जिस प्रकार अग्नि की दो प्रकृति है एक प्रकाश और दूसरा ऊष्मा । प्रकाश और ऊष्मा रूप प्रकृति तभी है जब अग्नि का अस्तित्व है । बिना प्रकाश के अग्नि या बिना ऊष्मा के अग्नि या दोनों के बिना अग्नि का अस्तित्व ही नहीं है । अग्नि, ऊष्मा और प्रकाश का कारण नहीं है, क्योंकि दो या दो से अधिक कारणों से ही कार्य की उत्पत्ति होती है । बल्कि, ऊष्मा और प्रकाश अग्नि से प्रकट हुए हैं - उत्पन्न नहीं हुए हैं क्योंकि प्राकट्य स्वतः होता है जबकि उत्पत्ति दो या दो से अधिक पदार्थों के मेल से होता है। शीतल अग्नि कभी नहीं देखी गई और न प्रकाशहीन अग्नि ही देखी गई है । अग्नि है तो प्रकाश और ऊष्मा निश्चित है । ठीक उसी प्रकार, परमात्मा की दो प्रकृति है एक अपरा और दूसरी परा । परमात्मा है तो परा और अपरा प्रकृति निश्चित है । जिस प्रकार अग्नि से स्वतः ही प्रकाश और ऊष्मा प्रकट होता है उसी प्रकार परमात्मा से स्वतः ही परा और अपरा प्रकृति का प्राकट्य होता है ।
भगवान् आगे कहते हैं,
एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय ।
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ॥
यह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ रूप दोनों 'परा' और 'अपरा' प्रकृति ही जिनकी योनि - कारण हैं ऐसे ये समस्त भूत प्राणी प्रकृति रूप कारण से ही उत्पन्न हुए हैं, ऐसा जान क्योंकि मेरी दोनों प्रकृतियाँ ही समस्त भूतों की योनि यानी कारण हैं, इसलिए समस्त जगत का प्रभव - उत्पत्ति और प्रलय - विनाश मैं ही हूँ । अर्थात इन दोनों प्रकृतियों द्वारा मैं सर्वज्ञ ईश्वर ही समस्त जगत् का कारण हूँ ।
(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय - ७, श्लोक - ६)
प्रकट हुए परा प्रकृति और अपरा प्रकृति के मेल से (के कारण) समस्त भूत प्राणी उत्पन्न हुए हैं। जिस प्रकार सूर्य की किरण के एक ही बिंदु पर प्रकाश और ऊष्मा एक साथ क्रियाशील होते हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि ऊष्मा का कारण प्रकाश है। ठीक उसी प्रकार, परा और अपरा प्रत्येक बिंदु पर एक साथ क्रियाशील हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि परा प्रकृति का आश्रय अपरा प्रकृति है इसीलिए मृत्यु यानी शरीर (अपरा) के नाश के साथ ही "मैं" जिसकी आवाज है उस आत्मा (परा) के नाश की प्रतीती होती है।
चूँकि दोनों प्रकृति मूलतः भगवान् से ही प्रकट हैं अतः आत्मरूपा और मायारूपा दोनों प्रकृतियों द्वारा सर्वज्ञ परमात्मा ही समस्त जगत के उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय हैं। अतः समस्त जगत् का मूल कारण सर्वज्ञ परमात्मा हैं !!
जय श्री कृष्ण !!
शुक्रवार, 8 दिसंबर 2017
परिश्रम सौभाग्य की
*"परिश्रम सौभाग्य की जननी है "*
*देने के लिये "दान"*
*लेने के लिये "ज्ञान"*
*और*
*त्यागने के लिए "अभिमान"*
*सर्वश्रेष्ठ है* *अच्छे के साथ अच्छे बनें *पर बुरे के साथ बुरे नहीं।*
..क्योंकि -*
*हीरे से हीरा तो तराशा जा सकता है लेकिन कीचड़ से*
*कीचड़ साफ नहीं किया जा सकता
जय श्री कृष्णा
*देने के लिये "दान"*
*लेने के लिये "ज्ञान"*
*और*
*त्यागने के लिए "अभिमान"*
*सर्वश्रेष्ठ है* *अच्छे के साथ अच्छे बनें *पर बुरे के साथ बुरे नहीं।*
..क्योंकि -*
*हीरे से हीरा तो तराशा जा सकता है लेकिन कीचड़ से*
*कीचड़ साफ नहीं किया जा सकता
जय श्री कृष्णा
कमियां तो मित्रो मुझमें
कमियां तो मित्रो मुझमें भी बहुत है ,
पर मैं बेईमान नहीं ।
मैं सबको अपना मानता हूं
सोचता फायदा या नुकसान नहीं ।
एक शौक है खामोशी से जीने का ,
कोई और मुझमें गुमान नहीं ।
छोड़ दूं बुरे वक्त में आपका साथ ,
वैसा तो मैं इंसान नहीं ।।।।।।
जय श्री कृष्णा
पर मैं बेईमान नहीं ।
मैं सबको अपना मानता हूं
सोचता फायदा या नुकसान नहीं ।
एक शौक है खामोशी से जीने का ,
कोई और मुझमें गुमान नहीं ।
छोड़ दूं बुरे वक्त में आपका साथ ,
वैसा तो मैं इंसान नहीं ।।।।।।
जय श्री कृष्णा
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