. मैं ही 'उत्पत्ति', मैं ही 'स्थिति' और मैं ही 'प्रलय' हूँ !!!
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश एवं मन, बुद्धि और अहंकार; इस प्रकार यह उपर्युक्त प्रकृति अर्थात मुझ ईश्वर की मायाशक्ति आठ प्रकार से भिन्न है - विभाग को प्राप्त हुई है ।
(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय - ७, श्लोक - ४)
भगवान् श्री कृष्ण आगे कहते हैं,
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् ।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ॥
यह (उपर्युक्त) मेरी अपरा प्रकृति अर्थात परा नहीं, किन्तु निकृष्ट है, अशुद्ध है और अनर्थ करने वाली है एवं संसार बन्धनरूपा है । और हे महाबाहो! इस उपर्युक्त प्रकृति में दूसरी जीवरूपा अर्थात प्राणधारण की निमित्त बनी हुई जो क्षेत्रज्ञरूपा प्रकृति है, अंतर में प्रवृष्ट हुई जिस प्रकृति के द्वारा यह समस्त जगत धारण किया जाता है उसको तू मेरी परा प्रकृति जान अर्थात उसे मेरी आत्मरूपा उत्तम और शुद्ध प्रकृति जान ।
(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय - ७, श्लोक - ५)
भगवान् ने अपरा और परा रूप अपनी ही दो प्रकृति बताया है । यहाँ प्रकृति शब्द महत्वपूर्ण है । जिस प्रकार अग्नि की दो प्रकृति है एक प्रकाश और दूसरा ऊष्मा । प्रकाश और ऊष्मा रूप प्रकृति तभी है जब अग्नि का अस्तित्व है । बिना प्रकाश के अग्नि या बिना ऊष्मा के अग्नि या दोनों के बिना अग्नि का अस्तित्व ही नहीं है । अग्नि, ऊष्मा और प्रकाश का कारण नहीं है, क्योंकि दो या दो से अधिक कारणों से ही कार्य की उत्पत्ति होती है । बल्कि, ऊष्मा और प्रकाश अग्नि से प्रकट हुए हैं - उत्पन्न नहीं हुए हैं क्योंकि प्राकट्य स्वतः होता है जबकि उत्पत्ति दो या दो से अधिक पदार्थों के मेल से होता है। शीतल अग्नि कभी नहीं देखी गई और न प्रकाशहीन अग्नि ही देखी गई है । अग्नि है तो प्रकाश और ऊष्मा निश्चित है । ठीक उसी प्रकार, परमात्मा की दो प्रकृति है एक अपरा और दूसरी परा । परमात्मा है तो परा और अपरा प्रकृति निश्चित है । जिस प्रकार अग्नि से स्वतः ही प्रकाश और ऊष्मा प्रकट होता है उसी प्रकार परमात्मा से स्वतः ही परा और अपरा प्रकृति का प्राकट्य होता है ।
भगवान् आगे कहते हैं,
एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय ।
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ॥
यह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ रूप दोनों 'परा' और 'अपरा' प्रकृति ही जिनकी योनि - कारण हैं ऐसे ये समस्त भूत प्राणी प्रकृति रूप कारण से ही उत्पन्न हुए हैं, ऐसा जान क्योंकि मेरी दोनों प्रकृतियाँ ही समस्त भूतों की योनि यानी कारण हैं, इसलिए समस्त जगत का प्रभव - उत्पत्ति और प्रलय - विनाश मैं ही हूँ । अर्थात इन दोनों प्रकृतियों द्वारा मैं सर्वज्ञ ईश्वर ही समस्त जगत् का कारण हूँ ।
(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय - ७, श्लोक - ६)
प्रकट हुए परा प्रकृति और अपरा प्रकृति के मेल से (के कारण) समस्त भूत प्राणी उत्पन्न हुए हैं। जिस प्रकार सूर्य की किरण के एक ही बिंदु पर प्रकाश और ऊष्मा एक साथ क्रियाशील होते हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि ऊष्मा का कारण प्रकाश है। ठीक उसी प्रकार, परा और अपरा प्रत्येक बिंदु पर एक साथ क्रियाशील हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि परा प्रकृति का आश्रय अपरा प्रकृति है इसीलिए मृत्यु यानी शरीर (अपरा) के नाश के साथ ही "मैं" जिसकी आवाज है उस आत्मा (परा) के नाश की प्रतीती होती है।
चूँकि दोनों प्रकृति मूलतः भगवान् से ही प्रकट हैं अतः आत्मरूपा और मायारूपा दोनों प्रकृतियों द्वारा सर्वज्ञ परमात्मा ही समस्त जगत के उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय हैं। अतः समस्त जगत् का मूल कारण सर्वज्ञ परमात्मा हैं !!
जय श्री कृष्ण !!
भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च ।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ॥
पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश एवं मन, बुद्धि और अहंकार; इस प्रकार यह उपर्युक्त प्रकृति अर्थात मुझ ईश्वर की मायाशक्ति आठ प्रकार से भिन्न है - विभाग को प्राप्त हुई है ।
(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय - ७, श्लोक - ४)
भगवान् श्री कृष्ण आगे कहते हैं,
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम् ।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत् ॥
यह (उपर्युक्त) मेरी अपरा प्रकृति अर्थात परा नहीं, किन्तु निकृष्ट है, अशुद्ध है और अनर्थ करने वाली है एवं संसार बन्धनरूपा है । और हे महाबाहो! इस उपर्युक्त प्रकृति में दूसरी जीवरूपा अर्थात प्राणधारण की निमित्त बनी हुई जो क्षेत्रज्ञरूपा प्रकृति है, अंतर में प्रवृष्ट हुई जिस प्रकृति के द्वारा यह समस्त जगत धारण किया जाता है उसको तू मेरी परा प्रकृति जान अर्थात उसे मेरी आत्मरूपा उत्तम और शुद्ध प्रकृति जान ।
(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय - ७, श्लोक - ५)
भगवान् ने अपरा और परा रूप अपनी ही दो प्रकृति बताया है । यहाँ प्रकृति शब्द महत्वपूर्ण है । जिस प्रकार अग्नि की दो प्रकृति है एक प्रकाश और दूसरा ऊष्मा । प्रकाश और ऊष्मा रूप प्रकृति तभी है जब अग्नि का अस्तित्व है । बिना प्रकाश के अग्नि या बिना ऊष्मा के अग्नि या दोनों के बिना अग्नि का अस्तित्व ही नहीं है । अग्नि, ऊष्मा और प्रकाश का कारण नहीं है, क्योंकि दो या दो से अधिक कारणों से ही कार्य की उत्पत्ति होती है । बल्कि, ऊष्मा और प्रकाश अग्नि से प्रकट हुए हैं - उत्पन्न नहीं हुए हैं क्योंकि प्राकट्य स्वतः होता है जबकि उत्पत्ति दो या दो से अधिक पदार्थों के मेल से होता है। शीतल अग्नि कभी नहीं देखी गई और न प्रकाशहीन अग्नि ही देखी गई है । अग्नि है तो प्रकाश और ऊष्मा निश्चित है । ठीक उसी प्रकार, परमात्मा की दो प्रकृति है एक अपरा और दूसरी परा । परमात्मा है तो परा और अपरा प्रकृति निश्चित है । जिस प्रकार अग्नि से स्वतः ही प्रकाश और ऊष्मा प्रकट होता है उसी प्रकार परमात्मा से स्वतः ही परा और अपरा प्रकृति का प्राकट्य होता है ।
भगवान् आगे कहते हैं,
एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय ।
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा ॥
यह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ रूप दोनों 'परा' और 'अपरा' प्रकृति ही जिनकी योनि - कारण हैं ऐसे ये समस्त भूत प्राणी प्रकृति रूप कारण से ही उत्पन्न हुए हैं, ऐसा जान क्योंकि मेरी दोनों प्रकृतियाँ ही समस्त भूतों की योनि यानी कारण हैं, इसलिए समस्त जगत का प्रभव - उत्पत्ति और प्रलय - विनाश मैं ही हूँ । अर्थात इन दोनों प्रकृतियों द्वारा मैं सर्वज्ञ ईश्वर ही समस्त जगत् का कारण हूँ ।
(श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय - ७, श्लोक - ६)
प्रकट हुए परा प्रकृति और अपरा प्रकृति के मेल से (के कारण) समस्त भूत प्राणी उत्पन्न हुए हैं। जिस प्रकार सूर्य की किरण के एक ही बिंदु पर प्रकाश और ऊष्मा एक साथ क्रियाशील होते हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि ऊष्मा का कारण प्रकाश है। ठीक उसी प्रकार, परा और अपरा प्रत्येक बिंदु पर एक साथ क्रियाशील हैं और ऐसा प्रतीत होता है कि परा प्रकृति का आश्रय अपरा प्रकृति है इसीलिए मृत्यु यानी शरीर (अपरा) के नाश के साथ ही "मैं" जिसकी आवाज है उस आत्मा (परा) के नाश की प्रतीती होती है।
चूँकि दोनों प्रकृति मूलतः भगवान् से ही प्रकट हैं अतः आत्मरूपा और मायारूपा दोनों प्रकृतियों द्वारा सर्वज्ञ परमात्मा ही समस्त जगत के उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय हैं। अतः समस्त जगत् का मूल कारण सर्वज्ञ परमात्मा हैं !!
जय श्री कृष्ण !!
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